Behold

Wednesday, November 20, 2024

शौर्य दिवस

सुंदर सुखद रघुनाथ गुण बस रीछ कपि कानन बसे ।
हुए लोक पावन भुवन पालक विटप भूधर कर कसे।।
जब बात यह वन‌ जात की तब मनुज मन की क्या कथा।
आगार बिन निज नाथ हित उपजी नहीं किस उर व्यथा।।१।।

पा राम रति राकेश सागर शूरता वर जल लिए।
उत्तुंग रोष तरंग पूरित भंवर बल धारण किए।।
पीने यवन बड़वा भवन तब लांघ धीरज कूल को।
बढ़ता चला साकेत हित मेटे पुरातन शूल को।।२।।

ब्रह्मा तनय मख ध्वंस कारण प्रमथ गण हर के यथा।
धरता चरण खल गेह वारण राम सेवक दल तथा।।
डोले धरा दिक् कमठ कुंजर नागपति मन सुख तजे।
दौड़े भगत भगवान हित देखें विबुध गण नभ सजे।।३।।

जय राम घोष ललाम सब दिशि ठान किंकर लय चले।
घेरे सदंभ कपाट खम्भ विशाल गुम्बद पद तले।।
भुज दण्ड चण्ड प्रहार दारण भित्ति कलश उखाड़के।
गाते अमल रघुनाथ यश हरि की पताका गाड़के।।४।।

क्या विप्र क्या राजन्य वणिज तुरीय जन मिल सब चले।
ज्यों पुरुष मुख भुज पाद जंघा सहस धारक थल दले।।
साहस रहा किस राज में इस तेज से टकराव को।
शंकर मुरारि की धरा अब मांगती इस भाव को ।।५।।


अर्थ-


सुंदर और सुखद रघुनाथ जी के गुणों के वश में वन में बसने वाले रीछ वानर भी हाथ में पर्वत और पेड़ उठाये ही लोक को पवित्र करने वाले विश्व के पालक हो गये।‌ जब वन में जन्में जीवों कि ये दशा तो मनुष्य मन की क्या बात। अपने स्वामी को भवन बिना देखकर किसकी छाती में पीड़ा नहीं होगी।१।

तब राम प्रेम रूपी पूर्ण चंद्र को पाकर शूरता रूप श्रेष्ठ जल से भरा, ऊंची क्रोध रूप लहरों और भंवर रूप बल को धारण किये, धैर्य रूपी तट को लांघने वाला सागर, यवन भवन रूपी बड़वा अग्नि को पीने अयोध्या को चल पड़ा जो पुरातन शूल को मिटाता है।२।

 ब्रह्मा के पुत्र दक्ष के यज्ञ को ध्वंस करने हेतु जैसे शिव के प्रमथ गण हों वैसे ही दुष्टों के भवन के विनाश हेतु राम के सेवकों का दल पग धरता है। धरती दिग्गज और कूर्म हिल जाते हैं ,शेष जी का मन सुख त्याग देता है। देवता आकाश में खड़े होकर देखते हैं कि भगवान के लिए भक्त दौड़ चले‌।३।

सब दिशाओं में जय राम के सुंदर घोष हैं । विनाश ठानकर सेवक चल पड़े। वे घमंड से बाबरी के द्वार और खंभों को घेरते हैं। भवन का  विशाल गुम्बद अब  उनके चरणतल में है। अपनी सुदृढ़ भुजा के प्रहार से ही दीवार ढहा देते हैं और कलश को उखाड़ कर श्रीराम का निर्मल यश गाते हुए उनकी पताका को गाड़ देते हैं।४।

क्या ब्राह्मण क्या क्षत्रिय क्या वैश्य और शूद्र सब मिलकर चले। ऐसा लगा मानो सहस्र मुख हाथ जंघा चरण धारण करने वाला पुरुष भूतल का दलन कर रहा है।
किस शासन में यह साहस रहा है कि इस तेज से टकराए। अब शंकर और श्रीकृष्ण की धरती भी इस भाव को मांगती है।५।

Thursday, October 24, 2024

भाषाबद्ध भीष्म स्तुति ( प्रथम स्कंध)


यदुवीर पद पाथोज लीन विहीन कामज मल मति।
निज रुप स्थित वर केलि हित जय त्रिगुण‌ कारण संसृति।।१।।
त्रय भुवन कमन तमाल सम तन तरणि कर सम पट धरे।
मुख जलज राजित कुटिल कच कपि-ध्वज सुहृदि मन रति करे।।२।।
मम विशिख हत मण्डित कवच श्रमवार्यलङ्कृत वदन जो।
हय चरण रज कुंचित अलक पर समर छवि मे शरण सो।।३।।
निज मीत वचन संभाल दल द्वौ मध्य स्यन्दन द्रुत लिए।
कृत नयनपात विघात खल दल हरण आयुष बस हिये।।४।।
जब विजय कौरव यूथपति तक कुमति बस रण पथ तजे।
कर दान पर विद्या हरण अज्ञान तव पद मन भजे।।५।।
निज वचन घालक पन मे पालक चरण रथ धारण किए।
झपटे यथा हरि नाग पर कम्पित धरा तव पट लिए।।
मम शर भ्रमर तव तन विदारक वर्म बिन तुम बढ़ चले।
निर्वाण दायक रोष कर नित छवि सो मन मन्दिर धरे।‌। ६-७।।
फाल्गुन तुरग रथ सजग पालक नयन पथि जिन्ह तन तजे।
तिन्ह पाये रूप समान हरि म्रियमाण मन तम् नित भजे।।८।।
तव विरह कातर गोप तिय जन सकल लीला चरित ते।
करें अनुकरण जय ललित गति वर हास लोचन युत पते।।९।।
जय धर्म सुत मख अग्र पूजित भूप मुनि बहु गण घिरे।
मम नयन गोचर आज तुम जो स्थित निरंतर उर सरे।।१०।।

  दोहा- यथा दिवाकर एक नभ लोचन के बहु भेद।
         तथा हृदय तव वास है जाना मैं गत खेद।।


Saturday, October 19, 2024

कुरंग के भाग

कर चाप महान निषंग कटि सम कोटि अनंग छटा तन‌की।
जट जूट यथा अलि यूथ अपार विलोचन सोच हरे मनकी।।
कण स्वेद के भाल सुशोभित काल अजिन उर माल पड़ी वनकी।।
संग हेम कुरंग के रंङ्ग चले मन धार छवि इस धावन की।।१।।
घन दुर्गम कानन घाट महीधर लांघ के राम सुजान चले।
दमके द्युति नील यथा थल पे निरखी जिस नैन सो नैन भले।।
थक हार कदा वर स्वास भरे कब कूद के कण्टक घास दले।
अज ज्ञान अखण्ड अकाम विभु नर देह को धार विमूढ़ छले।।२।।
गुण मान गिरा मन पार विधि भव चार कुमार के ध्यान परे।
नित 'नेति' निषेध से खेद हरे श्रुति मूक समान हो मौन धरे।।
जप जोग विराग उपाय बहु कृत तद्यपि हाथ न आन पड़े।
मृग हेतु सो 'आदि' भगे भगवान हैं दीन कुरंग के भाग बड़े।।३।।


भावार्थ:

हाथ में विशाल धनुष कमर पर तूणीर ,करोड़ों कामदेवों सी शरीर की शोभा। जटा जूट ऐसा मानो भ्रमरों का समूह, चितवन मन की चिन्ता हरने वाली। ललाट पर पसीने की बूंदें हैं ,काला मृगचर्म पहना है और वन माला लटक रही है। ऐसे भगवान श्रीरंग (राम ) कुरंग (मृग) के साथ भाग चले । हे मन इस भागने का ध्यान कर ।।१।।

घने दुर्गम वन पानी के घाट और पर्वतों को लांघते हुए सर्वज्ञ राम ऐसे  चले जा रहे थे कि मानो नीली बिजली धरती पर  कौंध रही हो ।जिन आंखों ने उसे देखा उनका ही कल्याण है।
कब थक हार कर लंबी-लंबी सांसें लेते हैं कब कूद कर कांटों और घास को कुचले जाते हैं‌।अजन्मा अखंड ज्ञानस्वरूप व्यापक  नि:स्पृह भगवान नर शरीर धरकर मूढ़ जनों को छले रहे हैं।। २।।

मान (लंबाई -चोड़ाई इत्यादि) , गुण( सत्व, रज, तम)  मन , वाणी से दूर, ब्रह्मा , शिव और सनत्कुमार के ध्यान से भी परे ,वेद भी नेति रूप निषेध से जिसका ज्ञान कराके मौन हो जाते है, जप योग वैराग्य आदि उपायों से भी जो हाथ नहीं आते, रे आदि ! मृग के पीछे वही भगवान स्वयं‌ भाग रहे हैं।उस मृग का बड़ा भाग्य है।‌। ३।।


Thursday, October 3, 2024

देवीमाहात्म्य

हरि कर्णमल उद्भूत दानव त्रास विधि मन हारिणी।
जय पार काल कपाल हार विशाल भुज दस धारिणी।। १।।
जय रम्भ संभव दम्भ घालन आठ दस आयुध करे।
नागारिकन्धारुढ़ रुप अनूप सुर मुनि भय हरे ।।२।।
बरिबण्ड बहु भुज दण्ड खण्डिनी चण्ड मुण्ड‌ विघातिनी।
धूम्राक्ष शोणित बीज सेन समेत शुम्भ विपाटिनी।।३।।
ब्रह्मेन्द्र शर्व कुमार माधव रूप वपु सुर हर्षिणी।
कृत दूत हर खल यूथ बल निज ताप दारुण धर्षिणी।।४।।
घटभूत बाधित शैल वासिनी जयति नन्द कुमारिका। 
  दाडिमी पुष्प समान द्विज जय वैप्रचित्त विदारिका।।५।।
निरखे सकल दुष्काल हत जन नयन शत धारण किए।
नत पाल शाप कराल मोचन शाक पारण हित दिए।।६।।
जय दुर्ग दर्प कुठार बोहित वेद हित जग पोषिणी।
धृत भीम रूप उदार हिम गिरि भार दितिसुत रोषिणी।।७।।

 जय मधुप वपु षट्पाद अरुण अपार मद भय सोषिणी।
दे अभय मात: 'आदि' हित मन राम प्रेम सुपोषिणी।।८।।



भावार्थ 


) विष्णु के कान के मल से उत्पन्न मधु कैटभ और ब्रह्मा के मन का भय हरने वाली, कालातीत, कपालों का हार पहननेवाली, १० भुजावाली काली को नमस्कार।

२) रंभ के पुत्र महिषासुर का दंभ उतारने वाले १८आयुध जिस देवि के हाथ में हैं उसकी जय। नागारि- हाथी का शत्रु (सिंह )के कंधे पर चढ़ा ये अनूप रूप देवों और मुनियों का भय हरता है।

३) देवि बड़े बड़े अनेक वीरों की भुजाएं तोड़ने वाली और चण्ड मुण्ड‌ को मारने वाली है। धूम्राक्ष रक्तबीज और सेना समेत शुम्भ को चीरने वाली है।
४) ब्रह्मा, इन्द्र, शिव, कार्तिकेय और विष्णु के रूपों का शरीर (मातृका) धरकर देवताओं को प्रसन्न करने वाली है। शिव को दूत बनाकर (शिवदूती)अपने दु:स्तर तेज से असुरों का बल नष्ट किया।

५) घटभूत - घड़े से जन्मे - अगस्त्य द्वारा बाधित पर्वत (विन्धय पर्वत) पर रहने वाली देवि नन्द गोप की पुत्री हैं। वे ही अनार के पुष्प के समान दांतों वाली वैप्रचित्त दैत्य को मारने वाली रक्तदंतिका है उनकी जय हो।
६)देवि ने सूखे से पीड़ित लोगों को सौ आंखें धारण कर देखा (शताक्षी)। शरणागतों को पालने वाले ,कराल शाप को हरने वाले शाक उनको खाने को दिये (शाकाम्बरी)

७) दुर्गम असुर के दर्प के लिए कुठार और वेदों के लिए कर्णधार दुर्गा देवी सारे जग को प्रसन्न करने वाली है।
वे देवि भीमा होकर हिमाचल के दैत्यों को मारने वाली है।
८) छ: पैरों का भ्रमर (भ्रामरी देवि) बनकर अरुण का मद और भय नष्ट करने वाली देवि आप मेरे मन में राम के प्रति को सुपोषण करने वाली हैं। हे माता मुझे अभय दें।

Saturday, February 3, 2024

वीरराघव स्तुति


कोदण्डपाणि कृपाल खल दल काल राम रमापति।
रणरङ्ग चण्ड अनंग बहु छवि‌ पार गुण माया मति।।१।।
सिर जटा मुकुट विशाल भुज वन माल उर पट चीर के।
श्रम बिंदु शोभित भाल रुधिर तमाल सम तन वीर के।।२।।
खर शीश त्रय दूषण चतुर्दश सहस सुभट विदारणं।
शरभंग गीध मतंग कुटि तिय ताप त्रिविध निवारणं।।३।।
अजभूत कुंभज कोल मर्कट विपिन जन मन भावनं।
हर हृदय कंज अगाध मधुपं नौमि दण्डक पावनं।।४।।
मद अन्ध बालि कबन्ध वारण वात सुत मग भय हरं।
दस कन्ध नगर प्रचंड दाहक सिंह कपि जग जय करं।।५।।
हरि यूथ अगम अपार हित वर सेतु मिस यश दायकं।
दशशीश‌ अनुज विशोक करणं नौमि रघुकुल नायकं।।६।।
घट कर्ण वारिद नाद अगणित काल सम निशिचर हने।
जय लोक रावण घाल सुर मख पाल माया नर बने।।७।।
जय जयति विबुधानंद दायक चाप सायक कर धरे।‌
कह सगुण गुण आदित्य निर्गुण 'नेति' श्रुति भव भय हरे।।८।।

Do Read

Mysterious Manglacharan