Behold

Monday, September 13, 2021

रथाङ्गपाणि

धर महा कोदंड सायक वृष्टि गंगा सुत करे

जलद श्वेत प्रचंड मानो रक्त से धरणी भरे।

रुधिर सिंचित मुण्ड खंडित देह नर हय नाग के

 होम जन्तु हैं बने जन पांडवांतक याग के।

कराल काल समान शर संधान हत रण स्थान से

मोड़े विकल दल पृष्ठ निकले देह मृत के प्राण से।

“अंबु नाथ महेन्द्र निधिपति वा स्वयं यमराज हो

देवव्रत सम दावानल से दग्ध निश्चित आज हो”–

थक हार घोर प्रलाप कर रण विमुख दल कहे बार बार

 अट्टहास करे सुयोधन देखकर यह हाहाकार।

विकट संकट की घड़ी में थाम रथ अच्युत कहे-

” पार्थ तेरे स्वार्थ का परिणाम क्यों निज दल सहे!

त्याग मोह प्रहार कर!

अधर्म का संहार कर!!

गंगा सुत का हो पतन तू ऐसा शर संधान कर!!!”

सुन वचन निज सारथी के सजग न जब पार्थ हो

क्रोधवन्त अनंत नारायण हुए धर्मार्थ को।

पद्म लोचन विश्व मोचन के बने विकराल से

हों प्रलय में अर्क हिमकर यथा काल की चाल से।

“सकल खल दल का दलन हे श्वेतवाहन मैं करुँ!

तोड़ इस क्षण अपने प्रण को भार भूमि का हरुं !!”

कर घोष उच्च सरोष तज हय रास कूदे जब हरि

मानो थल के वक्ष स्थल पर नील दामिनी तब गिरी।

धर रथ चरण भव भय हरण चले भीष्म के संहार को

गंगा तनय मन विगत भय कहे ” आए हरि उद्धार को”।

सिंह स्कन्ध प्रलंब बाहु अंग नील तमाल से

श्री रंग का मुख चंद सुंदर अरुण नैन विशाल से।

केश कुंचित धूलि सिंचित स्वेद कण हरि भाल पर

पट पीत  भू पर जा गिरे  शर -भ्रमर गूंजे माल पर ।

दोहा- प्रेम मगन गंगा सुअन देख यह रुप अनूप।

नीर नयन भर नमन करे,”जय मुकुन्द जग भूप।।1।।

पूर्ण किया प्रण दास का निज पद वचन बिसार।

जय रथांग पाणि प्रभु करुणा सिंधु अपार”।।2।।

प्रेम सुधा मन पान करे।हस्त बाण संधान करे ।।

चौपाई -“जय गिरिधर जय जय वरदायक”।केशव उर साधे दश सायक।।

“जय गोविन्द अपार अनंत”।कवच भेदा शर मार तुरंत।।

रुधिर सने, करे हरि गर्जन । विमुख हुए रण से सब दुर्जन ।।

गंगा सुत पर टूटे ऐसे। झपटे विहंग भुजंग पे जैसे।।

चिंतित कंपित अर्जुन भागे।लपक चरण कूदे प्रभु आगे।।

“शांत! शांत! हे अंतर्यामी! मै मति मंद अंध अघ कामी।।

मम अपराध बिसारो भगवन। मम हेतु मत तोड़ो निज प्रण।।

देव देव कारण के कारण। तव आदेश करुँ शिर धारण।।”

द्युति सम अंतर ज्ञान जगा। शोक मोह अज्ञान भगा।

बजें शंख करें युद्ध विराम। विजय भीष्म करें दण्ड प्रणाम

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