घोर भव घाम पाहि श्याम घन रामचंद्र
तृषित पुण्य महि लुप्त सा वेद वन
बोध योग याग नीर स्रोत गये सूख सब
देहि दया जल पातु जानकी रवन ।।१।।
लय विकराल सम काल कलि ओर चहुं
सज्जन समाज मनु तेरी शरण
मीन रुप राम दाम वासुकी कृपाल नाम
थाम नत नांव परिताप हरण ।।२।।
हेम नैन काम हत वासना पयोधि बस
मन थल लीन भोग वारि गहन।
क्रोड़ मख रूप राम श्रृंग एक तव नाम
तारण धरा दिति आत्मज दहन।।३।।
दैत्य भूप कोप किये जीव देव लोक दास
धर्म पथ कोऽपि नहीं धारे चरण।
उग्र हरि रूप राम वज्रनख सम नाम
तेरे हाथ यातुधान नाथ मरण।।४।।
वेद वेदांग आदि चतुर्दश रत्न कृत
कर्म त्याग शाप बस सागर गमन ।
कूर्म रूप राम पीठ धर्म शैल धार निज
मथ जलनाथ गेह शाप शमन।।५।।
देव भूत भाव निज रूप तीन लोक हित
दम्भ बलि राज दैवी संपत् हरण
छद्म द्विज रूप राम पाद विक्रम ललाम
नाम तव नाक नाथ दास भरण।।६।।
लोभ दश शत बाहु मुनि हिमकर राहु
ग्रहण लालसा प्रचंड मानस मथन।
जामदग्न्य रूप राम परशु कराल नाम
संत प्रतिपाल लोभ बाहु क्रथन।।७।।
गज खग कपि व्याध शिला द्विज मनुजाद
राखे राम राय बस नाम उच्चरण।
कौन ऐसी रेख भाल मेट न सके कृपाल
मांगे दीन हीन आदि तेरी ही शरण।।८।।
भावार्थ
हे राम रुपी श्याम मेघ! रक्षा करो। संसार रूपी धूप में पुण्य रूप भूमि प्यासी है, वेद रूपी वन लुप्त से हो गये। ज्ञान योग यज्ञ रुप जल स्रोत सूख गये । हे जानकी रमण कृपा रूपी जल दो रक्षा करो।।१।।
चारों ओर कलि काल ऐसा है मानो भयंकर प्रलय का काल हो। इसमें सज्जनों का समाज रूप मनु अब तेरी ही शरण में है। हे परिताप हरने वाले राम तुम ही मत्स्य हो तुम्हारा नाम ही वासुकी नाग रूपी रस्सी। शरणागत की नांव थाम लो।।२।।
हिरण्याक्ष रूपी काम की मार खाकर वासना रूपी समुद्र में मन रूपी थल गहरे विषय जल में लीन है। हे राम इस दैत्य को मारने वाले और धरती को तारने वाले यज्ञमय वाराह तुम ही हो और तुम्हारा नाम ही उस वाराह की दाढ़ है।। ३।।
क्रोध रूपी दैत्यराज (हिरण्यकश्यप) ने जीव इन्द्रियाभिमानि देवता समेत सारे लोक को अपना दास बना लिया। कोई भी धर्म पथ पर पांव नहीं रखता। हे राम तुम ही उग्र नरसिंह हो तुम्हारा नाम ही उसके वज्र नख हैं। तेरे हाथ में ही असुर नाथ का मरण है।।४।।
वेद वेदांग आदि चतुर्दश विद्या स्थान ही १४ रत्न हैं जो कर्म त्याग रूप शाप के बस समुद्र में चले गये। हे शाप शमन कूर्म रूप राम पीठ पर धर्म रूपी पर्वत धारण कर वरुणालय को मथ डालो।।५।।
आधिदैव अधिभूत और अध्यात्म रूप तीन लोकों के लिए दम्भ ही दैवी संपत्ति हरने वाला राजा बलि है। हे राम तुम ही मायावी ब्राह्मण वामन हो तुम्हारा नाम ही सुंदर पाद विन्यास है जो दास रूपी इन्द्र का भरण करने वाला है।।६।।
मुनि रूपी चन्द्रमा के लिए लोभ ही सहस्रबाहु राहु जैसा है जो ग्रहण रूपी या ग्रहण करने प्रचंड लालसा से मन को मथ डालता है। से राम तुम ही जामदग्न्य हो तुम्हारा नाम ही भयानक परशु है जो संतों को पालता है और लोभ की भुजाओं को काट डालता है।।७।।
गजेन्द्र,भुषण्डी/जटायु, सुग्रीव, वाल्मीकि,शिला रूप अहल्या, अजामिल,राक्षस (विभीषण) इन सबको राजा राम ने नाम लेने मात्र से रख लिया। ऐसी कौन सी माथे की रेखा है जो दयालु राम नहीं मिटा सकते, अब ये दीन ही आदि भी से राम तेरी ही शरण में है।।८।।
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