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Friday, April 25, 2025

वीर राघवेन्द्र स्तवन


पाहि देव रघुनाथ धर हाथ कार्मुक विशिख लसत् खड्ग विकराल कटि तूण भारी।

विकट मनुजाद तिय मार भर्तार मुनि विकल मारीच सुभुज हननकारी।।१।।

परशुधर गर्व हर शर्व चाप खर्व कर असुर महिपाल मद चंद्र राहो।

चतुर्दश सहस खल दनुज वन दहनकर दास नत त्राहि आजानुबाहो।।२।।

अस्थि शैल खण्डनं सप्त ताल भंजनं  मर्कटाधीश बल द्रुम कुठारं।

दलनं विराध पाप हरणं कबंध शाप नौमि भूप रूप ब्रह्म लोक सारं।।३।।

शत्रु बंधु पालकं दर्प सिंधु घालकं तमचर कुल कुमुद घोर मार्तण्डं।

वन्दे घटकर्ण वारिधर नाद शीश दस धरणीधर मथन पवि सुप्रंचडं।।४।।

जयति संग्राम भव नाम पर जीव हित संबल त्रिताप भय शोकहारी।

शंकर मन जो मराल 'आदि' तव खेद काल वीर रघुनाथ सो धनुष धारी।।५।।

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