सुंदर सुखद रघुनाथ गुण बस रीछ कपि कानन बसे ।
हुए लोक पावन भुवन पालक विटप भूधर कर कसे।।
जब बात यह वन जात की तब मनुज मन की क्या कथा।
आगार बिन निज नाथ हित उपजी नहीं किस उर व्यथा।।१।।
पा राम रति राकेश सागर शूरता वर जल लिए।
उत्तुंग रोष तरंग पूरित भंवर बल धारण किए।।
पीने यवन बड़वा भवन तब लांघ धीरज कूल को।
बढ़ता चला साकेत हित मेटे पुरातन शूल को।।२।।
ब्रह्मा तनय मख ध्वंस कारण प्रमथ गण हर के यथा।
धरता चरण खल गेह वारण राम सेवक दल तथा।।
डोले धरा दिक् कमठ कुंजर नागपति मन सुख तजे।
दौड़े भगत भगवान हित देखें विबुध गण नभ सजे।।३।।
जय राम घोष ललाम सब दिशि ठान किंकर लय चले।
घेरे सदंभ कपाट खम्भ विशाल गुम्बद पद तले।।
भुज दण्ड चण्ड प्रहार दारण भित्ति कलश उखाड़के।
गाते अमल रघुनाथ यश हरि की पताका गाड़के।।४।।
क्या विप्र क्या राजन्य वणिज तुरीय जन मिल सब चले।
ज्यों पुरुष मुख भुज पाद जंघा सहस धारक थल दले।।
साहस रहा किस राज में इस तेज से टकराव को।
शंकर मुरारि की धरा अब मांगती इस भाव को ।।५।।
अर्थ-
सुंदर और सुखद रघुनाथ जी के गुणों के वश में वन में बसने वाले रीछ वानर भी हाथ में पर्वत और पेड़ उठाये ही लोक को पवित्र करने वाले विश्व के पालक हो गये। जब वन में जन्में जीवों कि ये दशा तो मनुष्य मन की क्या बात। अपने स्वामी को भवन बिना देखकर किसकी छाती में पीड़ा नहीं होगी।१।
तब राम प्रेम रूपी पूर्ण चंद्र को पाकर शूरता रूप श्रेष्ठ जल से भरा, ऊंची क्रोध रूप लहरों और भंवर रूप बल को धारण किये, धैर्य रूपी तट को लांघने वाला सागर, यवन भवन रूपी बड़वा अग्नि को पीने अयोध्या को चल पड़ा जो पुरातन शूल को मिटाता है।२।
ब्रह्मा के पुत्र दक्ष के यज्ञ को ध्वंस करने हेतु जैसे शिव के प्रमथ गण हों वैसे ही दुष्टों के भवन के विनाश हेतु राम के सेवकों का दल पग धरता है। धरती दिग्गज और कूर्म हिल जाते हैं ,शेष जी का मन सुख त्याग देता है। देवता आकाश में खड़े होकर देखते हैं कि भगवान के लिए भक्त दौड़ चले।३।
सब दिशाओं में जय राम के सुंदर घोष हैं । विनाश ठानकर सेवक चल पड़े। वे घमंड से बाबरी के द्वार और खंभों को घेरते हैं। भवन का विशाल गुम्बद अब उनके चरणतल में है। अपनी सुदृढ़ भुजा के प्रहार से ही दीवार ढहा देते हैं और कलश को उखाड़ कर श्रीराम का निर्मल यश गाते हुए उनकी पताका को गाड़ देते हैं।४।
क्या ब्राह्मण क्या क्षत्रिय क्या वैश्य और शूद्र सब मिलकर चले। ऐसा लगा मानो सहस्र मुख हाथ जंघा चरण धारण करने वाला पुरुष भूतल का दलन कर रहा है।
किस शासन में यह साहस रहा है कि इस तेज से टकराए। अब शंकर और श्रीकृष्ण की धरती भी इस भाव को मांगती है।५।
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