यदुवीर पद पाथोज लीन विहीन कामज मल मति।
निज रुप स्थित वर केलि हित जय त्रिगुण कारण संसृति।।१।।
त्रय भुवन कमन तमाल सम तन तरणि कर सम पट धरे।
मुख जलज राजित कुटिल कच कपि-ध्वज सुहृदि मन रति करे।।२।।
मम विशिख हत मण्डित कवच श्रमवार्यलङ्कृत वदन जो।
हय चरण रज कुंचित अलक पर समर छवि मे शरण सो।।३।।
निज मीत वचन संभाल दल द्वौ मध्य स्यन्दन द्रुत लिए।
कृत नयनपात विघात खल दल हरण आयुष बस हिये।।४।।
जब विजय कौरव यूथपति तक कुमति बस रण पथ तजे।
कर दान पर विद्या हरण अज्ञान तव पद मन भजे।।५।।
निज वचन घालक पन मे पालक चरण रथ धारण किए।
झपटे यथा हरि नाग पर कम्पित धरा तव पट लिए।।
मम शर भ्रमर तव तन विदारक वर्म बिन तुम बढ़ चले।
निर्वाण दायक रोष कर नित छवि सो मन मन्दिर धरे।। ६-७।।
फाल्गुन तुरग रथ सजग पालक नयन पथि जिन्ह तन तजे।
तिन्ह पाये रूप समान हरि म्रियमाण मन तम् नित भजे।।८।।
तव विरह कातर गोप तिय जन सकल लीला चरित ते।
करें अनुकरण जय ललित गति वर हास लोचन युत पते।।९।।
जय धर्म सुत मख अग्र पूजित भूप मुनि बहु गण घिरे।
मम नयन गोचर आज तुम जो स्थित निरंतर उर सरे।।१०।।
दोहा- यथा दिवाकर एक नभ लोचन के बहु भेद।
तथा हृदय तव वास है जाना मैं गत खेद।।
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