जट जूट यथा अलि यूथ अपार विलोचन सोच हरे मनकी।।
कण स्वेद के भाल सुशोभित काल अजिन उर माल पड़ी वनकी।।
संग हेम कुरंग के रंङ्ग चले मन धार छवि इस धावन की।।१।।
घन दुर्गम कानन घाट महीधर लांघ के राम सुजान चले।
दमके द्युति नील यथा थल पे निरखी जिस नैन सो नैन भले।।
थक हार कदा वर स्वास भरे कब कूद के कण्टक घास दले।
अज ज्ञान अखण्ड अकाम विभु नर देह को धार विमूढ़ छले।।२।।
गुण मान गिरा मन पार विधि भव चार कुमार के ध्यान परे।
नित 'नेति' निषेध से खेद हरे श्रुति मूक समान हो मौन धरे।।
जप जोग विराग उपाय बहु कृत तद्यपि हाथ न आन पड़े।
मृग हेतु सो 'आदि' भगे भगवान हैं दीन कुरंग के भाग बड़े।।३।।
भावार्थ:
हाथ में विशाल धनुष कमर पर तूणीर ,करोड़ों कामदेवों सी शरीर की शोभा। जटा जूट ऐसा मानो भ्रमरों का समूह, चितवन मन की चिन्ता हरने वाली। ललाट पर पसीने की बूंदें हैं ,काला मृगचर्म पहना है और वन माला लटक रही है। ऐसे भगवान श्रीरंग (राम ) कुरंग (मृग) के साथ भाग चले । हे मन इस भागने का ध्यान कर ।।१।।
घने दुर्गम वन पानी के घाट और पर्वतों को लांघते हुए सर्वज्ञ राम ऐसे चले जा रहे थे कि मानो नीली बिजली धरती पर कौंध रही हो ।जिन आंखों ने उसे देखा उनका ही कल्याण है।
कब थक हार कर लंबी-लंबी सांसें लेते हैं कब कूद कर कांटों और घास को कुचले जाते हैं।अजन्मा अखंड ज्ञानस्वरूप व्यापक नि:स्पृह भगवान नर शरीर धरकर मूढ़ जनों को छले रहे हैं।। २।।
मान (लंबाई -चोड़ाई इत्यादि) , गुण( सत्व, रज, तम) मन , वाणी से दूर, ब्रह्मा , शिव और सनत्कुमार के ध्यान से भी परे ,वेद भी नेति रूप निषेध से जिसका ज्ञान कराके मौन हो जाते है, जप योग वैराग्य आदि उपायों से भी जो हाथ नहीं आते, रे आदि ! मृग के पीछे वही भगवान स्वयं भाग रहे हैं।उस मृग का बड़ा भाग्य है।। ३।।
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