कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमत:। वाल्मीकि रामायण ७.३५.८।।
रणमें हनुमान जी ने जैसे अद्वितीय कर्म किए वैसे न काल के न इन्द्र के न कुबेर के और न ही भगवान विष्णु के सुने गये हैं।
यह शब्द वाल्मीकि रामायण में स्वयं भगवान श्रीरामचन्द्र के हैं। श्रीराम अगस्त्य मुनि के समक्ष हनुमान जी के पराक्रमों का वर्णन करते हुए भाव विभोर हो रहे हैं। और क्यों न हो रामायणरूप महामाला के रत्न श्री हनुमानजी ही तो हैं। रामायण है राम का संस्थान। यस्मिन् रामस्य संस्थानं रामायणमथोच्यते- आनंदरामायण मनोहर काण्ड सर्ग१६.
यदि इसमें रामरूपी ज्ञानाग्नि है तो हनुमान जी ही उस अग्नि की प्रचंड ज्वाला हैं-
जयति मंगलागार संसारभारापहर वानराकारविग्रह पुरारी।
राम रोषानल ज्वालमाला मिष ध्वांतचर सलभ संहारकारी।। विनय पत्रिका २७।।
हनुमान जी कि अपार कीर्ति जन जन तक व्याप्त है अतः उसे किसी विशेष परिचय की आवश्यकता नहीं। आगम निगम पुराणों, यहां तक कि जनजातियों में भी हनुमान का यश विस्तार को प्राप्त है।
हनुमान जयंती का अवसर है । ज्ञानिनामग्रगण्यम् की ख्याति को प्राप्त कपि केसरी की जन्म तिथि भी बुद्धि पर पड़े जड़ता के अंधकार का नाश करके,ज्ञान का प्रकाशन करने का सामर्थ्य रखती है। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। शीघ्र ही सब विदित हो जाएगा।
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा प्रचलित रुप से हनुमान जयंती के रूप में मनाई जाती है। विशेषकर उत्तर भारत में यही तिथि जनमानस में विदित है। पर एक वर्ष में कई कई बार लोग हनुमान जयंती की मंगल कामनाएं देते देखे जाते हैं। और भिन्न-भिन्न भू भागों में भिन्न-भिन्न तिथि पर हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। अतः स्वाभाविक ही प्रश्न बनता है कि कौन सी तिथि वास्तविक तिथि है। धर्मोपासना के विषय में शास्त्र ही प्रमाण है- तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । भगवद्गीता १६.२४।।
तो चलिए शास्त्र का हि अवलोकन करें।
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा तिथि आनंदरामायण के अनुसार मान्य है। पर जहां यह तिथि बताई है वहां और क्या बताया है सो भी देख लें
चैत्रे मासि सिते पक्षे हरिदिन्यां मघाऽभिधे।
नक्षत्रे स समुत्पन्नो हनुमान रिपुसूदन:।।
महाचैत्रीपूर्णिमायां समुत्पन्नोऽञ्जनीसुतः।
वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन।। १.१३.१६२-१६३।।
चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में रिपुसूदन हनुमान जी का जन्म हुआ। कुछ पण्डित जन कल्पभेद से चैत्र शुक्ल पूर्णिमा बताते हैं।
स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड ४०.४२-४३ में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा तिथि बताई गई है -... मेषसंक्रमणं भानौ सम्प्राप्ते मुनिसत्तमा:। पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्र संयुते।।
बात यहीं समाप्त नहीं हुई है। कुछ अन्य प्रमाण देखिए।
वायुपुराण कहता है -
आश्विनास्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे च मारुति:।
मेषलग्नेऽञ्जनागर्भात् स्वयं जातो हर: शिव:।।
आश्विन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथिको स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में अञ्जना के गर्भ से स्वयं शिव ही मारुति बनकर जन्मे।
इस प्रकार अगस्त्य संहिता में - ऊर्जे कृष्णचतुर्दश्यां भौमे स्वात्यां कपीश्वर:।
मेषलग्नेऽञ्जनागर्भात् प्रादुर्भूतः स्वयं शिव:।।
कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी, मंगलवार, स्वाति नक्षत्र, मेष लग्न में माता अञ्जना के गर्भ से स्वयं शिव हनुमान बनकर प्रकट हुए।
वहीं ब्रह्माण्ड पुराण कहता है - "श्रावणमास की एकादशी के दिन श्रवण नक्षत्रमें अञ्जना ने हनुमान जी को जन्म दिया।"
तो अब आप सोच रहे होंगे कि यहां तो शास्त्र कि प्रमाणिकता पर ही प्रश्न चिह्न लगा गया। जिनकी कोई निश्चित जन्म तिथि नहीं उन हनुमान जी महाराज के अस्तित्व पर भी कोई संशय कर सकता है।
परन्तु जैसा कि पहले कह आए कि जड़ता के संस्कार पर कठोर प्रहार होगा। वास्तव में यह प्रश्न तब उठते हैं जब हम सनातन वैदिक धर्म के ईश्वर और उसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों के स्वरूप को ठीक से नहीं समझते।
यहां ईश्वर जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर ही जगत् बनाने वाला भी है और जगत् बनता भी है।
स्रष्टा सृजति चात्मानं विष्णुः पाल्यं च पाति च ।
उपसंह्रियते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ।। विष्णुपुराण १.२.३७।।
भगवान स्रष्टा होकर अपना ही सृजन करते हैं, पालक होकर अपना ही पालन करते हैं, और अंत में अपना ही संहार स्वयं करते हैं।
निरतिशय बृहत् और सदैव वर्धनशील होने से इसे ही ब्रह्म की संज्ञा दी गई है-
बृहत्वाद्बृंहणत्वाच्च यद्रूपं ब्रह्म संज्ञितं- विष्णुपुराण १.१२.५५
और इस ब्रह्म वस्तु के लिए ही श्रुति कहती है -
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्ति0 उ0 २.१)
यह सत्य है। अर्थात् जिसकी सत्ता तीनों कालों में ज्यों कि त्यों बनी हुई है। जिसमें किसी प्रकार का विकार या परिवर्तन नहीं है। यह ज्ञानस्वरूप है अर्थात् चेतन है। और अनंत है।तो अब समझना यह है कि ब्रह्म कैसा बृहत् है। यदि कहो कि देश कि दृष्टि से बृहत् है तब तो देश इसको एक सीमा में बांधने से इसका संकोचक होजायेगा तो यह अनंत नहीं है। यदि यह कहा जाए कि काल की धारा में बृहत् मानें अर्थात् अमुक वर्ष पुराना तो जन्मने और मरने वाला है अतः सत्य नहीं। इसलिए ये ऐसा बृहत् है जो देश और काल से सीमित नहीं।
और जीव को कहा इस ब्रह्म का अंश - ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।। गीता.१५.७।।
जो सीमित नहीं हैं उसमें अंश को भी उपाधि से ही स्वीकार करना पड़ेगा। जैसे महाकाश का अंश घटाकाश-
मायाविद्ये विहायैव उपाधी परजीवयोः।
अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्म विलक्ष्यते।। अध्यात्मोपनिषत् ३२।।
इन जीव एवं ईश्वर के अविद्या और माया रुप उपाधियों के त्याग करने पर अखंड सच्चिदानन्दस्चरुप ब्रह्म ही लक्षित होता है।
एक और बात ध्यान देने कि है । यदि कल्पना करें कि कभी काल नहीं था, तो जिस काल में काल के अभाव कि कल्पना की जाए वह भी काल हि होगा। और बिना ज्ञान के काल नाम कि वस्तु का प्रकाशन नहीं होगा । अतः सिद्ध है ज्ञान में काल का प्रवाह कल्पित है। ज्ञान काल से सीमित नहीं। यही बात देश पर भी लागू होती है। तो देश काल का प्रकाशक ज्ञान है। और ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु को जोड़ने वाली वस्तु जो उन दोनों से विलक्षण है वही ज्ञान है और यही ज्ञान ब्रह्म है।
देश और काल में जन्मने वाले चराचर सहित सम्पूर्ण जगत ज्ञान में ही भासमान हो रहा है। अतः जगत् ज्ञानस्वरूप है-
ज्ञान स्वरूपमखिलं जगदेतबुद्धयः।
अर्थ स्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यन्ते मोहसम्प्लवे।। विष्णुपुराण १.४.४०
तो इससे सिद्ध हुआ कि यदि ब्रह्म को अपार महासागर जानें तो जीव उसकी असंख्य तरंगें जो है तो वास्तव में जल ही। और इन असंख्य जीवों कि कल्पना से उसमें उनके द्वारा प्रकाशित काल, काल में जन्मने वाले असंख्य ब्रह्माण्ड अतः अनिर्वचनीय अपार प्रपंचों कि कल्पना होगी। प्रपंच के अनुसंधान का कोई अंत नहीं होगा। क्योंकि प्रपंच के अधिष्ठान का हि कोई अंत नहीं है।
अब विचार करें कि जो वस्तु सबकी प्रकाशक है वह किसी भी प्रमाण का विषय कैसे हो सकती है। क्योंकि प्रमाणों कि सत्ता भी स्वत: सिद्ध प्रमाता से ही है। अतः इन्द्रियां, अथवा इन्द्रिय जन्य ज्ञान करावाने वाले साधन भी इसको विषय नहीं कर सकते ।
तो वेद इस अप्रमेय के प्रमाण कैसे सिद्ध हुए? इस भगवत्पाद आदि शंकराचार्य के गीता भाष्य में श्लोक २.१८ की व्याख्या द्रष्वय है। भाषानुवाद दिया जाता है -
"जब कि शास्त्रद्वारा आत्माका स्वरूप निश्चित किया जाता है तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका ( फिर वह अप्रमेय कैसे है ) ।
यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वतः सिद्ध है। प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज ( शुरू ) होती है।
क्योंकि मै अमुक हूँ इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता। तथा अपना आपा किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है।
शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है वह आत्मामें किये हुए अनात्मपदार्थोंके अध्यारोपको दूर करनेमात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं।
ऐसे ही श्रुति भी कहती है कि जो साक्षात् अपरोक्ष है वही ब्रह्म है जो आत्मा सबके हृदयमें व्याप्त है इत्यादि।"
इसी से वेदों के भाष्यकार सायणाचार्य कहते हैं -
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्ध्यते। एनं विदन्ति वेदेन तस्मात् वेदस्य वेदता।।
जो वस्तु प्रत्यक्ष या अनुमान आदि प्रमाणों से न जानने में आए यदि वेद उसका ज्ञान करादें तो उनकी वेदता सिद्ध है।
ऐसे अप्रमेय अनंत अविकारी अविनाशी अखंड परमात्मा में गुणों का अध्यारोप किया जाता है। उसमें उपचार से ही सृष्टि स्थिति आदि कर्म स्वीकार करवाये जाते हैं। जिससे सामान्य जन उन गुणों का अपवाद कर परमात्मा का स्वरूप समझें
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ।।
सृष्टिकी रचना आदि कर्मोंका निरूपण करके पूर्ण परमात्मासे कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है।।
भागवत २.१०.४५
वास्तव में परमात्मा में न कर्तृत्व है न कर्तापन-
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। गीता-५.१४
ईश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
ऐसे विलक्षण ईश्वर का ही ज्ञान कराने के लिए वेद कर्म, उपासना और ज्ञान का प्रतिपादन, भिन्न-भिन्न बुद्धियों से युक्त भिन्न-भिन्न अधिकारियों के लिए करते हैं-
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे- श्रीमद्भागवतम् (११।२१।३५)
ब्रह्म और आत्मा को विषय करने वाले वेद तीन काण्डों से युक्त है।
कर्म और उपासना द्वारा निर्गुण निर्विषय ब्रह्म में वेद गुणों का अध्यारोप करते हैं और अपने अंतिम भाग उपनिषदों में सबका निषेध करके ब्रह्म का वर्णन करते हैं।
वेद वेद्य तत्व सुगम प्रकार से जन जन तक पहुंचे और विस्तार को प्राप्त हो इसलिए महामुनि कृष्ण द्वैपायन और वाल्मीकि ने इतिहास पुराण की रचना की-
वेदोपबृंहणार्थाय तौ अग्राहयत प्रभुः -१.४.६. वाल्मीकि रामायण
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थ्मुपबृंहयेत् महाभारत १.१
२६७
इतिहास और पुराण के द्वारा वेद के अर्थ का विस्तार करना चाहिये।
यह वेद वेद्य तत्व अज अनादि अव्यय होता हुआ भी, साधकों के लिए मोक्ष की सोपान भूत अपनी कीर्ति का विस्तार करने लिए लोक में प्रकट होता है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। ४.६-गीता।।
यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।
इसके कारण कि चर्चा मैंने विस्तार से अपने अन्य लेख में की है।
अभी केवल इतना जानना पर्याप्त है कि यह एक ही तत्व भिन्न-भिन्न साधकों के हेतु भिन्न-भिन्न रूपों से प्रकट होता है और जैसा कि पहले कहा पंडित जन इसको भिन्न-भिन्न प्रकार से गाते हैं।
अयं ब्रह्मा शिवो विष्णुरयमिन्द्र: प्रजापति।
अयं वायुरयं चाग्निरयं सर्वाश्च देवता:॥
सूतसंहिता २.१०.३६.
यह आत्मा ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, वायु, अग्नि है। यही सभी देवता है।
शंकराचार्य ने कहा है आत्मविषयक बुद्धि होती है पण्डा। जिसके पास यह बुद्धि है वह पण्डित है। इस बुद्धि के आश्रय से महात्मा जन अनंत ब्रह्म में कल्पित अनंत काल , देशों, वस्तुओं का वर्णन करते हैं। इसको ही पुराण संहिता नामक ग्रंथ में परकीया भाषा कहा गया।
भागवत रामायण आदि के आरंभ में भी यह बताई जाती है कि ग्रंथ का प्रणयन करने से पूर्व व्यास वाल्मीकि समाधि में स्थित हुए थे।
तो एक बात आप निश्चित समझलें कि भारतीय वांग्मय में श्री हनुमानजी महाराज का भी ब्रह्म रूप से वर्णन हुआ है। पुराणों और आगमों में इसका विस्तार उपलब्ध है ही।
उदाहरणार्थ नारद पुराण हनुमानजी के विषय में कहता है
स सर्वरूप: सर्वज्ञ: सृष्टिस्थितिकरोऽवतु।
स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णु साक्षाद्देवो महेश्वर:।।
वह हनुमानजी सर्वरूप सर्वज्ञ सृष्टिस्थिति प्रलय करने वाले हैं। यह स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णु स्वयं महेश्वर हैं।
शिवपुराण शतरुद्रसंहिता में आया है स्वयं परात्पर ब्रह्म शंकर ने ही हनुमान का रूप लिया
अतः परं श्रृणु प्रीत्या हनुमच्चरितं मुने।
यथा चकाराशु हरो लीलास्तद्रूपतो वरा:।
तो जिस अनिर्वचनीय ब्रह्म वस्तु का वर्णन श्रुति भी निषेधात्मक विधि से ही करती है, उसमें भासमान होने वाले अनंत गुणों का पूरा पूरा वर्णन एक ही पुस्तक, एक ही ऋषि , एक ही दृष्टि से कैसे किया जा सकता है? यह तो उस ब्रह्म के विषय संपूर्ण दृष्टि नहीं हुई।
अतः स्वाभाविक ही है परात्पर ब्रह्म हनुमान जी का प्रादुर्भाव महात्माओं के बुद्धि पटल पर भिन्न-भिन्न प्रकार से ही होगा।
तुलसीदास जी भी इससे कहते हैं
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी।।
कल्पभेद के अनुसार हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गाया है। हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए।
अतः हनुमान जयंती की सभी तिथियां सत्य हैं। आप शास्त्र के जिस वचनानुसार जिस भी दिन हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाते हैं आपका मंगल ही है। क्योंकि इतिहास पुराण की सार्थकता ही इसमें है कि वह इन्द्रियातीत भगवान को हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनाये। जिससे कि असत् में व्यवहार करते हुए भी सत् वस्तु का साक्षात्कार हो। क्योंकि असत् कि तो सत्ता हि नहीं है और सत्य का अभाव ही नहीं -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः २.१६ गीता।।
भगवान भी गीता में कहते ही हैं -
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।४.११।।
पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।
इसलिए विविधता किसी विरोधाभास को नहीं अपितु वेद के उच्चतम सिद्धांत को मानव जीवन में व्यक्त करती है। ऐसी दृष्टि भारतीय व्रत महोत्सवों में ही दृष्टिगोचर होती है।
अतः उपर्युक्त विवेचन का सार इस चौपाई में ही निहित है -
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले अपार गुणों के सागर , ज्ञान स्वरुप कपि रूप धारी ईश्वर हनुमानजी की जय हो!!
आशा है हनुमान जी कि जयंती के माध्यम से हम लोग अपने अंत:करण की जड़ता पर विजय प्राप्त करें।
आप सभी धर्मावलंबियों को हनुमान जयंती की अनेक शुभकामनाएं। मंगलमूर्ति मारुति सबका मंगल करें।।
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