विकट अगाध सिंधु भव बंधन।
जल अज्ञान वेग चंचल मन।।
विषय अपार मीन बहुरंगे।
कर्म सुधाकर जन्म तरंगें ।।
बहते काठ से जीव चतुर्विध।
सहते योग वियोग जो बहुविध ।।
विकल सकल पथ अगम अपार।
किस साधन से उतरें पार।।
जो जाना भव बंध कराल।
क्यों न भजे तब राम कृपाल।।
राम हुताशन पाप के वन को।
मार्तण्ड माया तम घन को।।
विध्वाल्हाद जलज नृण मन को।
वर भूपाल सकल निज जन को।।
मत्स्य राम लय काल त्राण से।
धरणी धर मख धर्म प्राण से।।
नृहरि राम दिति सुत सब पातक।
भक्त हृदय प्रह्लाद सम चातक।।
वारिधि भव सद्ग्रंथ हैं मन्दर।
राम नाम कच्छप अति सुंदर ।।
योग विराग बोध अति पावन।
राम नाम साधे बटु वामन।।
अर्जुन भुज सम कर्म के हेतु।
राम कराल विप्र कुल केतु।।
जग रण में साधें परमार्थ।
दो अक्षर केशव मति पार्थ।।
मरु थल में जैसा जल भान।।
ऐसा ही भव बंध को जान।
जो चाहे भव बंध का पार।।
त्याग कपट भज राम उदार।
एक नाम सब सिद्धि साधी।।
नहीं कलि में मख धर्म समाधि।।
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